Bhagavad Gita: Chapter 14, Verse 3-4

मम योनिर्महद् ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम् |
सम्भव: सर्वभूतानां ततो भवति भारत || 3||
सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तय: सम्भवन्ति या: |
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रद: पिता || 4||

मम–मेरा; योनि:-गर्भ ; महत्-ब्रह्म-पूर्ण भौतिक सार ; तस्मिन्-उसमें; गर्भम्-गर्भ; दधामि-धारण करता हूँ; अहम्–मैं; सम्भवः-जन्म; सर्व-भूतानाम्-समस्त जीवों का; ततः-तत्पश्चात्; भवति–होना भारत–भरतपुत्र, अर्जुनः सर्व-सभी; योनिषु–समस्त योनियों में; कौन्तेय-कुन्तीपुत्र, अर्जुन; मूर्तयः-रूप; सम्भवन्ति-प्रकट होते हैं; याः-जो; तासाम्-उन सबों का; ब्रह्म-महत्-वृहत् माया शक्ति; योनिः-जन्म; अहम्–मैं; बीजप्रदः-बीजप्रदाता; पिता–पिता।

Translation

BG 14.3-4: हे भरत पुत्र! प्रकृति, गर्भ स्वरूपा है। मैं इसी प्रकृति में जीवात्मा को गर्भस्थ करता हूँ जिससे समस्त जीवों का जन्म होता है। हे कुन्ती पुत्र! सभी योनियाँ जो जन्म लेती है, माया उनकी गर्भ है और मैं उनका बीज प्रदाता जनक हूँ।

Commentary

जैसा कि 7वें और 8वें अध्याय में वर्णन किया गया है कि भौतिक सृष्टि में सर्जन, स्थिति और प्रलय का चक्र चलता रहता है। प्रलय के दौरान जो जीवात्माएँ भगवान से विमुख होती हैं वे महाविष्णु के उदर में प्रसुप्त अवस्था में समा जाती हैं। प्रकृति भी अव्यक्त अवस्था में भगवान के महोदर में चली जाती है। जब भगवान सृष्टि करने की इच्छा करते हैं तब वे प्रकृति पर दृष्टि डालते हैं। परिणामस्वरूप यह व्यक्त होने लगती है और फिर क्रमिक रूप से महान, अहंकार, पंचतन्मात्राओं और पंच महाभूतों की उत्पत्ति होती है। दूसरे सृष्टिकर्ता ब्रह्मा की सहायता से प्राकृतिक शक्ति विविध जीवों को उत्पन्न करती है और भगवान आत्माओं को उन उपयुक्त शरीरों में रखता है जो उनके पूर्व कर्मों द्वारा निर्धारित होता है। इसलिए श्रीकृष्ण कहते हैं कि प्रकृति गर्भ के समान है और आत्माएँ शुक्राणुओं के समान हैं। वे आत्माओं को प्रकृति के गर्भ में भेजते हैं। ऋषि वेदव्यास श्रीमद्भागवतम् में इसी प्रकार का वर्णन करते हैं-

दैवात्क्षुभितधर्मिण्यां स्वस्यां योनौ पर:पुमान्।

आधत्त वीर्यं सासूत महत्तत्त्वं हिरण्मयम्।। 

(श्रीमद्भागवतम्-3.26.19) 

"भगवान आत्माओं को प्रकृति के गर्भ में स्थापित करता है। तब जीवात्मा के कर्मों से उत्प्रेरित होकर माया शक्ति उनके लिए उपयुक्त शरीर तैयार करती है। वह सभी आत्माओं को संसार में नहीं भेजती बल्कि केवल भगवान से विमुख आत्माओं को भौतिक जगत में भेजती है।"

Swami Mukundananda

14. गुण त्रय विभाग योग

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